आधुनिक पीढ़ी का एक बड़ा भाग कृत्रिम परिवेश में अपना सारा जीवन गुजार दे रही है। ऐसी आबादी या पीढ़ी कृत्रिम प्रकृति पर अति निर्भर है। आधुनिक मानव अक्सर जाने-अनजाने में वनों को अपनी बाधा के रूप में देखता है। आज वनों का विनाश मनुष्य, जीवों व पर्यावरण को संपूर्ण विनाश की ओर ले जा रहा है। यदि आप वनों या प्रकृति के असल स्वरूप को असहज रूप में देखते हैं तो वनों के महत्व को जानना एंव समझना आपको तथा आपके परिवार व बच्चों के लिए बेहद जरूरी है।
वन पारिस्थितिकी तंत्र का अभिन्न अंग होते हैं – वन दुनिया के 80 प्रतिशत पारिस्थितिकी तंत्रों का प्रत्यक्ष निवास स्थान हैं। दुनिया के लगभग सभी पारिस्थितिकी तंत्रों का वनों के अभाव में नष्ट होना सुनिश्चित है। ये समस्त जीवन का आधार होते हैं तथा किसी पारिस्थितिकी तंत्र में छोटा-सा बदलाव भी जीवन के किसी स्तर में भारी बदलाव लाता है। इनका नष्ट होना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जीवन के अंत या विनाश का संकेत होता है। वनों की प्रकृति एंव प्रणाली पारिस्थितिकी तंत्रों के स्वरूप एंव गति को नियंत्रित करती है। वनों की स्थिति एंव स्वरूप में कोई भी बदलाव किसी पारिस्थितिकी तंत्र को भी उसके अनुरूप ही बदल देता है।
वर्तमान विकास की गति एंव उसकी प्रक्रिया पारिस्थितिकी तंत्रों को नष्ट एंव खतरनाक रूप से समेटते जा रही है। ये सीधे तौर पर अति महत्वपूर्ण खाद्य श्रंखलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही हैं। इससे खाद्य आपूर्ति एंव सुरक्षा की स्थिति गंभीर बनती जा रही है। जब भी कोई पारिस्थितिकी तंत्र टूटती या नष्ट होती है तो उसी के अनुरूप खाद्य श्रंखला भी छोटी होती जाती है। इससे जीवों और परजीवियों के बीच टकराव बढ़ता है। ऐसा होने पर सबसे बड़ा खतरा संक्रामक बीमारियों के फैलने का होता है। यह जानवरों से इनसानों तथा इनसानों से जानवरों दोनों में हो सकता है। पारिस्थितिकी तंत्रों का विनाश मानव व्यवसायों और गतिविधियों को भी प्रभावित करता है। यह सभ्यताओं के अंत का भी सूचक होता है। वैज्ञानिक तथ्य एंव आंकड़े यह बतलाते हैं कि कई पूर्व सभ्यताएं स्वयं अपने प्राकृतिक परिवेशों का विनाश कर स्वयं नष्ट हो चुकीं हैं।
वन हवा को शुद्ध रखती है – प्रदूषित वायु हर वर्ष करोड़ों लोगों की असामयिक मृत्यु का कारण बनती है। प्रदूषित हवा मानवों में हृदयघात, फेफड़ों का कैंसर व अन्य हृदय संबंधी रोगों का प्रमुख कारण बनती है। ये हमारी तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर उसकी रोगों से लड़ने की क्षमता को कमजोर बनाती है। यह कृषि एंव खाद्य-आपूर्ति को भी प्रभावित करती है। वायु प्रदूषण अम्ल वर्षा भी लाती है। अम्लीय वर्षा वृक्षों तथा वनों को तो हानि पहुंचाती ही है साथ ही मिट्टी तथा नदी-नालों को भी अम्लीय कर देती है। इससे कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा सूखे को बढ़ावा मिलता है।
वन हवा को शुद्ध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मानव जनित विभिन्न कार्यों द्वारा वायुमंडल में बड़ी मात्रा में हानिकारक गैसों का रिसाव होता है। वन ऐसे गैसों को बड़ी मात्रा में सोख लेते हैं तथा उतनी ही मात्रा में ये शुद्ध वायु यानि आक्सीजन को वायुमंडल में छोड़ते हैं। इस प्रकार ये हवा का शुद्धिकरण करते हैं।
वन जलवायु नियंत्रक होते हैं – बीसवीं सदी के शुरूआत से ही वैज्ञानिक यह संकेत दे रहे हैं कि पृथ्वी के वायुमंडल तथा समुद्र का तापमान लगातार बढ़ रहा है। यह वृधि वर्तमान में 0.8 डिग्री तक दर्ज की जा चुकी है। इसके कारण हिमालय, आईसलैंड तथा ग्रीनलैंड में जमीं बर्फ बड़ी तेजी से पिघल रही है। इससे समुद्र स्तर खतरनाक ढंग से बढ़ता जा रहा है तथा स्थलीय एंव समुद्रीय पारिस्थितिकी तंत्रों के संपूर्ण विनाश का खतरा बढ़ता ही जा रहा है।
बढ़ते तापमान की अनियंत्रित वृधि को रोकने में वन अहम भूमिका निभाते हैं। वनोच्छादित क्षेत्र बड़ी मात्रा में हवा में मौजूद कार्बन डाइआक्साइड को सोख बदले में ज्यादा से ज्यादा हवा में जल की मात्रा या नमी को छोड़ते हैं। सघन वन घने बादलों का निर्माण करते हैं जो न सिर्फ पर्याप्त वर्षा लाते हैं बल्कि वे सूर्य की किरणों को अंतरिक्ष में परावर्तित भी कर देते हैं। वर्षा से वातावरण में नमी एंव तापमान में उष्णता बढ़ती है जिससे और ज्यादा बरसाती बादलों का निर्माण होता है। इससे वनों में लगने वाली आग भी नियंत्रित होती है। इस प्रकार वन न सिर्फ कठोर एंव चरम मौसमी प्रभावों से पर्यावरण व परिवेशों को बचाती है बल्कि विभिन्न स्तरों पर जीवन के विकास को भी गति देते है।
वन बाढ़ रोकने में अहम भूमिका निभाते हैं – बारिश के मौसम या चरम मौसमी परिस्थितियों में हम अक्सर बाढ़ से होने वाले खतरों के बारे में पढ़ते हैं। बाढ़ आने के प्रमुख कारणों में से एक वनों का अभाव व नष्ट होना है। वनों में बारिश के पानी को सोखने और उसके भण्डारण करने की अदभुत क्षमता होती है। वन भूमिगत जल की मात्रा में वृधि करने के साथ ही मिट्टी की जल सोखने की क्षमता का भी विकास करते हैं। इस प्रकार वन अत्यधिक जल की मात्रा को सोख बाढ़ के खतरे को कम करते हैं। वन द्वारा संग्रहित पानी सूखे के मौसम में स्वच्छ पानी की उपलब्धता में कमी नहीं होने देते है। इस तरह वन अकाल से होने वाले दुष्प्रभावों में भी कमी लाते हैं। सदाबहार वन इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
वन हवा की गति को नियंत्रित करते हैं – अनियंत्रित एंव तेज हवाएं पर्यावरणीय परिवेशों तथा पारिस्थितिकी तंत्रों के समुचित विकास को बाधित करती हैं। तेज हवाएं मिट्टी की प्रकृति को प्रभावित करती है तथा उनमें कटाव एंव अपक्षरण को बढ़ावा देती है। इससे मिट्टी की उर्वरता घटती है जिससे वनस्पतियों तथा कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अनियंत्रित हवाएं तापमान में भी अति उतार-चढ़ाव करती है जिससे जीवन अनुकूल परिवेशों का निर्माण नहीं हो पाता। घने वनो में मौजूद वृक्षों की श्रंखला तेज हवाओं की गति को कम व नियंत्रित करती हैं। इस प्रकार मिट्टी में कटाव और अपक्षरण रूकने तथा नियंत्रित तापमान होने से प्राकृतिक परिवेशों का निर्माण शुरू हो जाता है। इस प्रकार वन क्षेत्र जीव तथा वनस्पतियों के लिए आदर्श वातावरणों का ना सिर्फ निर्माण करते हैं बल्कि उनका बचाव एंव विकास भी करते हैं।
वन मृदा अपरदन को रोकती है – मृदा अपरदन वास्तव में एक मानवकृत समस्या है। वृक्षों की अंधाधुंघ कटाई मृदा अपरदन को बढ़ावा देती है। वृक्षों के अभाव में होने वाली भारी वर्षा से मृदा के ऊपरी भाग का कटाव एंव स्थानांतरण होता है। वनों के अभाव में आने वाली बाढ़ अपने साथ मिट्टी बहा ले जाती है। नदियों के मार्ग में होने वाला परिवर्तन वृक्ष विहीन मृदा में कटाव व अपरदन करती है। वृक्षों या वनों के अभाव में चलने वाली तेज हवाएं भी मृदा के कणों का अपरदन करती हैं। इसी प्रकार चरागाहों में अति चराई और अवैज्ञानिक तरीकों द्वारा की गई खेती भी मृदा अपरदन काे बढ़ावा देती है। वनों में पाए जाने वाले वृक्ष तथा वनस्पति न केवल मिट्टी को बांधती है बल्कि उनमें पानी एंव खनिजों का संरक्षण भी करती हैं।
वन मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं – वन क्षेत्र न केवल अपनी मिट्टी का वरन अपने आसपास की मिट्टी का भी संरक्षण करते हैं। ये मिट्टी के अपरदन पर रोक लगाकर उनमें स्थिरता लाती है। वन बारिश के पानी को संरक्षित करने के साथ ही वायुमंडल एंव मिट्टी के तापमान को भी नियंत्रित करते हैं। वनों के वृक्ष एंव उनमें पायी जानेवाली विभिन्न वनस्पातियों के जड़ मिट्टी की उर्वरता के लिए जरूरी खनिजों को गहराई से ऊपरी सतह तक लाने में मदद करती है। वनों द्वारा सोखा गया पानी मिट्टी के लिए जरूरी नमी को बनाए रखने में मददगार होती है। मृत वृक्षों एंव झड़ने वाले पत्तियों, फूलों एंव फलों द्वारा कार्बनिक पदार्थ मिट्टी में होने वाले कटाव से भी बचाती है। मानव इतिहास में कृषि उपयोग में लाए जाने वाला हर क्षेत्र परोक्ष रूप से वनों द्वारा ही तैयार किया गया था। कृषि के अत्यधिक उपयोग व उपभोग द्वारा मिट्टी अम्लीय व मरूस्थलीय हो जाती है। यानि बिना व़ृक्षों के मिट्टी मर जाती है। आबादी द्वारा निरंतर बढ़ती मांग की पूर्ति के लिए वनों को काटकर निरंतर नई भूमि तैयार की जा रही है। इससे सूखी या मरूस्थलीय मिट्टी का विस्तार होता चला जा रहा है। इस कारण वृक्षों का पुन: रोपण बेहद जरूरी है क्योंकि वृक्षों की समाप्ति के साथ ही पृथ्वी पर जीवन भी स्वत: ही समाप्त हो जाए्गा।
सघन वन ताप नियंत्रक होते हैं – वनों के अभाव में तापमान अनियंत्रित रूप से बढ़ता है। इस कारण जीवन अनुकूल परिवेशों का विकास रूक जाता है। सघन वन क्षेत्रों में पाऐ जाने वाले वृक्ष तथा वनस्पतियां वाष्पोत्सर्जन द्वारा ताप नियंत्रित रखते हैं। वे घने वर्षा बादलों का निर्माण कराते हैं तथा बारिश द्वारा वातावरण में नमी बनाए रखते हैं। ये हवा को शुद्ध करने के साथ-साथ वातावरण में ठंडक बनाए रखते हैं। क्योंकि वृक्ष मिट्टी में पानी का संरक्षण करते हैं इस कारण वे आसपास के वातावरण में पर्याप्त मात्रा में नमी भी छोड़ते हैं। सघन वन कम दबाव वाले क्षेत्रों का भी निर्माण करते हैं जो समुद्रों की नम हवा को आकर्षित करती है। इससे स्थलीय भागों को ज्यादा से ज्यादा नमी एंव बरसात की सौगात मिलती है। वृक्ष तथा वन प्राकृतिक परिवेशों में संतुलन का काम करते हैं क्योंकि अत्यधिक गर्मी अथवा ठंड प्राकृतिक परिवेशों एंव पारिस्थितिकी तंत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं।
वन मीठे पानी का स्त्रोत होते हैं – मीठा पानी न केवल पीने योग्य पानी के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि यह कृषि एंव अन्य जीवों व पेड़-पौधों के लिए भी महत्वपूर्ण है। जैसे कृषि की सिंचाई व ताजे पानी की मछलियों के लिए मीठा पानी बेहद जरूरी होता है। वनों के अभाव में मीठे पानी के नदी एंव तालाब सूख जाते हैं। वन गंदे तथा खारे पानी को भी छानकर मीठे पानी में तब्दील कर देते हैं। वन बारिश के पानी को संग्रहित कर भूमिगत जल की मात्रा को भी बढ़ाते हैं। इस प्रकार वन नदियों, तालाबों एंव कुंओं के पानी को सूखने नहीं देते। इनसे पारिस्थितिकी तंत्रों को भी संरक्षण एंव गति मिलती है। वनों के अभाव में वर्षा भी कम होती है। नियमित मौसमी बारिश के लिए घने वनों का होना बेहद जरूरी है। इस कारण यह स्वभाविक है कि वनों के अभाव में पारिस्थितिकी तंत्रों का विनाश होगा जिससे जीवन का समूल नाश हो जाएगा।
वन जीव तथा वनस्पतियों के संरक्षक होते हैं – पृथ्वी पर मौजूद जीवन का तकरीबन तीन-चौथाई भाग वनों में निवास करती है। इस प्रकार करीब 750 लाख लोग, जिनमें से 60 लाख लोग स्थानीय या आदिवासी आबादी हैं, वनों में निवास करती है। पूरे विश्व में 4.06 करोड़ वर्ग क्षेत्र में फैले वनों में कुल 11 लाख जीव तथा पादप प्रजातियां निवास करती हैं। वन क्षेत्रों में निरंतर होने वाले विनाश से कई हजार प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं व कई हजार और प्रजातियां विलुप्ति की ओर अग्रसर हैं। अमेजन स्थित विशाल वर्षा वनों का तकरीबन 17 प्रतिशत भाग मानवीय गतिविधियों द्वारा नष्ट किया जा चुका है। भोजन, कृषि, विनिर्माण, लकड़ी व कई अन्य संसाधनों के लिए वनों के कई महत्वपूर्ण भागों को नष्ट किया जा चुका है व किया जा रहा है।
वनों की निरंतर कटाई के प्रमुख कारणों में बड़े कृषि क्षेत्रों का निर्माण एंव बड़े पैमाने पर पशुपालन है। पहले जो विलुप्ति आंकड़े हमें 100 वर्षों में चौंकाते थे वे अब दशकीय आधार पर चौंकाने लगे हैं। विकास की अनियंत्रित अंधी दौड़ तथा अप्राकृतिक जीवनशैली मानवों द्वारा वनों के विनाश का प्रमुख कारण हैं। जीव तथा पादप प्रजातियों के विलुप्ति से खाद्य श्रंखला का क्रम एंव संतुलन टूट जाता है। इसके दूरगामी विनाशकारी प्रभाव होते हैं। इस नाजुक संतुलन के टूटने से धीरे-धीरे जीवन अनुकूल परिवेशों का विनाश हो जाता है।
वन प्राकृतिक विकृतियों से बचाती हैं – जब कभी एंव जहां कहीं भी प्रकृति अपने परिवेशों का निर्माण करती है तो वह अपने भीतर चलायमान प्रवृतियों की एक श्रंखला बनाती है। वनों में पाए जाने वाले वृक्ष, वनस्पतियां, पशु-पक्षियों, कीट-पतंगे, मृदा आदि इन प्रवृति श्रंखलाओं का अहम हिस्सा होते हैं। मानवीय गतिविधियों या किसी अन्य कारणों से जब कभी वनों के वृक्ष, वनस्पतियां, पशु-पक्षी, कीट-पतंगों की कोई प्रजाति विलुप्त होती है या वहां की मृदा में कोई बदलाव आता है तो यह किसी न किसी रूप में प्राकृतिक परिवेशों में विकार उत्पन्न करती है। इसके द्वारा वनों की चलायमान प्रवृतियां बाधित होती हैं। परिणामस्वरूप ये विकृतियां जल, जीवन एंव परिवेशों को नष्ट करती हैं। जिस प्रकार किसी मशीन का कोई कलपुर्जा निकाल देने पर मशीन काम नहीं करती बिल्कुल उसी प्रकार वनों में पाई जानेवाली किसी भी प्रजाति की विलुप्ति पर उसकी चलायमान प्रवृति प्रभावित होती है। इस कारण वनों में पाए जाने वाले वृक्षों एंव उसकी जैव विविधिता का संरक्षण बेहद जरूरी है।
वन प्रकृति के स्वास्थ्य सूचक होते हैं – वन प्रकृति व जीवन के स्वास्थ्य सूचक होते हैं। वनों में पर्याप्त वृक्षों-वनस्पतियों की मौजूदगी, उनमें मौजूद विविधताओं की संख्या, उनके उगने की गति, उनमें मौजूद रंगों की स्थिति, मौजूदा तालाबों व नदियों की संख्या, मौसम अनुकूल आनेवाली अंतरों की स्थिति, उनमें मौजूद कीट एंव पशु व पक्षियों की संख्या आदि वनों के स्वास्थ्य के सूचक होते हैं। ये कारक तय करते हैं कि वनों द्वारा कितनी मात्रा में कार्बन सोखी जा सकेगी, कितनी मात्रा में वर्षा होगी व कितनी मात्रा में बारिश का पानी संग्रहित किया जा सकेगा। इसी प्रकार ये कारक यह तय करते कि वायुमंडल में कितनी मात्रा में शुद्ध हवा उपलब्ध रहेगी, कितनी मात्रा में मीठा पानी पीने को उपलब्ध रहेगा, मौसमी चक्रों की स्थिति क्या होगी, तापमान कितना रहेगा आदि। इसी प्रकार वनों में विचरने वाले जीवों व पक्षियों की संख्या यह तय करती हैं कि कोई वन कितना स्वस्थ एंव जीवन के अनुकूल है। पृथ्वी पर समस्त जीवन की अनुकूलता का सीधा संबंध हमारे वनों से है। वनों का स्वास्थ्य एंव उनकी उपलब्धता जीवन का सूचक हैं तथा उनकी अनुपलब्धता जीवन के विनाश का संकेत है।
व्यवसाय व आजीविका का प्रमुख साधन – प्रत्येक व्यवसाय व आजीविका का साधन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वनों से जुड़ा हुआ है। वनों से अनेक प्रकार की व्यवसायिक एंव घरेलु लकड़ी तो प्राप्त होती ही है, साथ ही अनेक प्रकार की गौण उपजें भी प्राप्त होती हैं। ये अनेक प्रकार के उद्योगों में प्रयुक्त होती हैं जैसे – चमड़ा, लाख, गोंद, रंगने के पदार्थ, औषिधियां, जड़ी-बूटियां आदि। इसके अलावा वनों से हमें बांस, विभिन्ऩ प्रकार के खाद्य पदार्थ, मसाले, एंटीडोटस, केमिकल उत्पादों के प्राकृतिक विकल्प, फाइबर तथा कई प्रकार के तेल भी प्राप्त होते हैं। इसके साथ ही वनों में पशुचारण भी किया जाता है। वन क्षेत्रों का सिमटना एंव उनका विनाश वर्तमान समाजों में निर्धनता, भुखमरी, बेरोजगारी व अकाल का प्रमुख कारण है। जहां वनों का विनाश जारी है वहीं कई देश व समुदाय वन क्षेत्रों का संरक्षण कर अपने प्राकृतिक परिवेशों का विकास कर रही हैं। इस प्रकार वे अपने देश के सतत् विकास में सहयोग कर रहे हैं। वन किसी देश की अर्थव्यवस्था, उर्जा आपुर्ति एंव क्षेत्रीय व वैश्विक व्यापार के लिए बेहद अहम होते हैं। दर्ज आंकड़े यह बतलाते हैं कि जिन देशों ने अपने वन क्षेत्रों में निवेश किया है उन्होंने बेहतर सामाजिक व आर्थिक विकास दर भी प्राप्त किया है।
वनों का प्रबंधन एंव संरक्षण हमेशा गलत तरीके से हुआ है। इनकी उपयोगिता की वास्तविकता अक्सर या तो गलत तरीके से या फिर कम करके आंकी जाती है। सरकारों, बाजारों एंव व्यवसायिक प्रतिस्पतर्धा एंव विकास की अंधी दौड़ असलियत पर पर्दे का काम करती है। इसी प्रकार जल्द से जल्द एंव ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने की होड़ में गलत व खराब नीतियों का निर्माण भी होता चला जाता है। इससे वनों का विनाश तो होता ही है साथ ही जीवन के लिए जरूरी पर्यावरण का भी समूल नाश होता है। गलत नीतियां एंव प्रगति की अंधी दौड़ ही समाज में भ्रष्टाचार व अवैध गतिविधियों का बीज बोती हैं। अनियंत्रित आबादी, गरीबी व बेरोजगारी जैसी अनेक समस्याओं का हल, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वनों से ही जुड़ा हुआ है।